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RASHMIRRATHI | TRITIY SARG | PART 2 | RAMDHARI SINGH | DINKAR | रामधारी सिंह दिनकर | वीर रस की कविता

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Published 17 Feb 2020

#devvanisanskritbharatkagaurav #कृष्णकीचेतावनी #दिनकरकीकविता#DINKAR #RASHMIRATHI #RASHMIRATHITRITIYSARG #RAMDHARISINGHDINKAR #MAHAKAVIKARN #JITENDRASHARMA महाकवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा महारथी कर्ण के जीवन चरित्र पर आधारित खंड काव्य रश्मिरथी के तृतीय सर्ग का दूसरा भाग | रश्मिरथी तृतीय सर्ग भाग २ वर्षों तक वन में घूम घूम बाधा विघ्नों को चूम चूम सह धूप घाम पानी पत्थर पांडव आए कुछ और निखर सौभाग्य न सब दिन सोता है देखें आगे क्या होता है मैत्री की राह बताने को सबको सुमार्ग पर लाने को दुर्योधन को समझाने को भीषण विध्वंस बचाने को भगवान हस्तिनापुर आए पांडव का संदेशा लाये दो न्याय अगर तो आधा दो पर इसमें भी यदि बाधा हो तो दे दो केवल 5 ग्राम रखो अपनी धरती तमाम हम वहीं खुशी से खाएंगे परिजन पर असि न उठायेंगे दुर्योधन वह भी दे न सका आशीष समाज की ले न सका उलटे हरि को बांधने चला जो था असाध्य साधने चला जब नाश मनुज पर छाता है पहले विवेक मर जाता है हरि ने भीषण हुंकार किया अपना स्वरूप विस्तार किया डगमग डगमग दिग्गज डोले भगवान् कुपित होकर बोले जंजीर बढ़ा कर साध मुझे हां हां दुर्योधन! बांध मुझे यह देख गगन मुझमें लय है यह देख पवन मुझमें लय है मुझमें विलीन झंकार सकल मुझमें लय है संसार सकल अमरत्व फूलता है मुझमें संहार झूलता है मुझमें उदयाचल मेरा दीप्त भाल भूमंडल वक्षस्थल विशाल भुज परिधि बंध को घेरे हैं मैनाक मेरू पग मेरे हैं दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर सब हैं मेरे मुख के अंदर दृग हो तो दृश्य अकांड देख मुझमें सारा ब्रह्मांड देख चर अचर जीव जग क्षर अक्षर नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर शत कोटि सूर्य शतकोटि चंद्र शत कोटि सरित सर सिंधु मंद्र शत कोटि विष्णु ब्रह्मा महेश शत कोटि जिष्णु जल पति धनेश शत कोटि रुद्र शत कोटि काल शत कोटि दंडधर लोकपाल जंजीर बढ़ा कर साध इन्हें हां हां दुर्योधन ! बांध इन्हें भूलोक अतल पाताल देख गत और अनागत काल देख यह देख जगत का आदि सृजन यह देख महाभारत का रण मृतकों से पटी हुई भू है पहचान कहां इसमें तू है । अंबर में कुंतल जाल देख पद के नीचे पाताल देख मुट्ठी में तीनो काल देख मेरा स्वरूप विकराल देख सब जन्म मुझी से पाते हैं फिर लौट मुझी में आते हैं । जिवहा से कढ़ती ज्वाल सघन सांसो में पाता जन्म पवन पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर हंसने लगती है सृष्टि उधर मैं जभी मूंदता हूं लोचन छा जाता चारों और मरण बांधने मुझे तो आया है जंजीर बड़ी क्या लाया है यदि मुझे बांधना चाहे मन पहले तो बांध अनंत गगन सूने को साध न सकता है वह मुझे बांध कब सकता है ? हित वचन नहीं तूने माना मैत्री का मूल्य न पहचाना तो ले मैं भी अब जाता हूं अंतिम संकल्प सुनाता हूं याचना नहीं अब रण होगा जीवन जय या कि मरण होगा टकराएंगे नक्षत्र निकर बरसेगी भू पर वन्हि प्रखर फन शेषनाग का डोलेगा विकराल काल मुंह खोलेगा दुर्योधन ! रण ऐसा होगा फिर कभी नहीं जैसा होगा भाई पर भाई टूटेंगे विष बान बूंद से छूटेंगे वायस सृगाल सुख लूटेंगे सौभाग्य मनुज के फूटेगे आखिर तू भूशई होगा हिंसा का पर दायी होगा थी सभा सन्न सब लोग डरे चुप थे या थे बेहोश पड़े केवल दो नर न अघाते थे धृतराष्ट्र विदुर सुख पाते थे कर जोड़ खड़े प्रमुदित निर्भय दोनों पुकारते थे जय जय !

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